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भग्वद्गीता

 आर्य जिस परिमार्जित ज्ञान प्राप्ति के लिए भारत आए वह निर्वेदं ( गीता 2/52 ) और खासतौर से मनुष्यों के लिए ( गीता 2/62 ) बिषयासक्त समुदाय को आसक्ति से दूर करने का है जो प्रज्ञाअपराध का मूल कारण है ॥ भीष्म द्रोण कर्ण सभी स्थितप्रज्ञ होने के बाद भी मौत के मुंह में समा गए क्योंकि महज ज्ञान ही ईश्वर प्राप्ति का साधन नहीं है ॥ श्रद्धा को उसका आधार नहीं माना जा सकता क्योंकि वह गुणों ( गीता 2/17 ) के अधीन है और त्रैगुण्यविषया वेदा के कारण मात्र समर्पण ही एक साधन ( गीता 17/7 ) रह जाता है जो ज्ञानियों का ज्ञान और अज्ञानियों का अन्तिम भाव है जोकि भागवत में स्नान करती युवतियों द्वारा व्यासजी को प्राप्त हुआ ॥

शिवलिंग और नंदी

 सृजन , पालन , संहार सबको संवारिती शक्ति का नाम है पृश्नि ॥ भगवान रुद्र जो साक्षात मृत्यु का भयानक स्वरूप हैं ,वही हैं जिनकी पूजा अर्चना को सभी आतुर रहते हैं ॥ उनका चाहिए कल्याणकारी शिवरूप जिसे हम चिन्ह या लिंगस्वरूप पूज सकते हैं ,प्रार्थना कर सकते हैं (यजुर्वेद 67/3 )  हजारों सालों से यही चल रहा है ,तो उनको साधारण नहीं , धर्मस्वरूप पूजा का अधिकार मानकर ऋषभ यानि नंदीबृषभ( चत्वारि श्रंगः ) जो हमेशा भगवान को आते हुए दक्षिण दिशा में मुख करके देखते हैं , हम साक्षी मानते हैं , कान में प्रार्थना सुनाते हैं , जलाभिषेक शिवलिंग का करते हैं ॥  इनका कल्याणकारी एक रूप बृषाकपि भी है जो बृषश्रंग ऋषि के पुत्र और इंद्र के भाई हैं आर्यों ने भारतीयों के साथ सिंधु नदी के आसपास अपना डेरा बनाया तथा समस्त ग्रुप कहलाया सिंधु या हिन्दू तथा धर्म हुआ सनातन ॥ चूंकि भगवान विष्णु पृथ्वी पर अवतार लेते हैं अतः इंद्र के छोटे भाई वामन भी कहलाए जिन्होंने तीन चरण में भूःभुवःस्वः तीनों लोक का भ्रमण किया ॥

33 देवता

  पृथ्वी आकाश और अन्तरिक्ष में 11 -11 क्रमशः देवता इस प्रकार हैं सोमदेव अर्थात पीले रंग वाले चन्द्र अग्निदेव तेजस्वी  त्वष्टादेव हाथ में कुल्हाड़ी  इंद्र हाथ में बज्र रुद्रदेव हाथ में त्रिशूल पूषादेव दिशाओं में निगरानी विष्णुदेव तीन चरण में तीनों लोक अश्विनीकुमार द्वय साथ में सूर्या पत्नी मित्रदेव वरुणदेव और सूर्यदेव इस प्रकार भूः में तदानुसार भुवः में एवं स्वः में कुल 33 देवता विचरण करते हैं ॥

वेदज्ञान

 क्या है वेदों में यह जानने का विषय है ॥ आर्य यहां आकर बस गए और सबको दिया ऋषियों से प्राप्त ज्ञान ॥स्त्री प्रेम में पुरुरवा उर्वशी कथानक , देवदूतों पर यम यमी कथानक , कल्याणकारी वृषाकपि इन्द्राणी कथानक , नचिकेता यम कथानक आदि आदि ॥ महत्वपूर्ण है मधुविद्या कथानक (मधु त्वा मधुला चकार ) यानि मधुविद्या का ज्ञान ॥ यहां त्वष्टा अपनी पुत्री का विवाह करना चाहते हैं अतः सूर्य की पत्नी सरण्यू को घोड़ी के रूप में देवताओं ने छिपा दिया फिर घोड़ी से अश्विनीकुमार द्वय पैदा हुए चूंकि त्वष्टा नें मधुविद्या अथर्वऋषि पुत्र दध्यंग को दी थी अतः इंद्र के मना करने के बाद भी अथर्वऋषि पुत्र ने  अश्वमुख से अश्विनीकुमारों को यह विद्या दी जिससे क्रुद्ध इंद्र ने वज्र से उसका सिर काट दिया अथवा मुंडवा दिया ॥ एक वज्र दधीचि की हड्डियों का भी इंद्र के पास है जिससे वृत्र राक्षस को पानी रोकने के कारण मारा , लोहे का वज्र भी इंद्र के पास है जो वीरता के काम आता है ॥ तमाम 33 देवतावों का यज्ञ द्वारा पूजन करके हवि पहुंचाना मनुष्यों का कार्य है अग्नि इस कार्य को करते हैं ॥ तमाम नीतियों का जिक्र है परन्तु धनप्राप्ति एवं गायप्राप्त

इंद्र और कृष्ण

  आर्य   भारत   आए   ज्ञान   प्राप्ति   के   लिए   ॥   यहाँ   उन्होंने   चारों   दिशाओं   में   पूर्व   में   द्वारिका   पश्चिम   में   पुरी   उत्तर   में   बृन्दावन   एवं   दक्षिण   में तिरुपति   सब   जगह   भगवान   कृष्ण   को   पूजित   पाया   अतः   कृष्ण   नाम   से   किनारा   करने   के   लिए   वेदों   में   भटकाना   चाहा   यहां   तक   कि   क्या क्या   कहा  (  ऋगवेद  8/130/1, 1,2/101/1 ) ॥ चारों   तरफ   इंद्र   ही   इंद्र   को   वेदों   में   पूजित   बताया   ॥ फिर   आया   अथर्ववेद   का   समय   जिसमें   कृष्ण   का   वर्णन   इंद्र   के   स्थान   पर   किया   गया  (  अथर्ववेद  7,8/137/20 ), पुराणों   का   गठन   हुआ   और   असली   ज्ञान   भग्वद्गीता   का   आर्यों   ने   पाया   जिसमें   वेदों   के   स्थान   पर   कर्मफल   के   त्याग   का   तथा   परमात्मा   की प्राप्ति   का   साधन   बताया   गया   और   वेद   उद्पान (  गीता  2/46 )  कहे   गए   एवं   श्रुति   परायण   को   चतुर्थ  (  गीता  13/26 ) बताया   गया   ॥  

सनातन आदि

 आर्यों का प्रवेश भारत में लगभग 5000 वर्ष ईशा  पूर्व हुआ ( ऋगवेद 8/113/9 ) और यह आक्रमण नहीं ज्ञान प्राप्ति के लिए था , वो अपने साथ तीनों लोकों में 33 देवताओं का विचार लाए( ऋगवेद 8/29 ) और उनको अग्नि द्वारा आहुतियों से भोजन देने ( ऋगवेद 8/7/4 ) तथा मनुष्यों की सहायता करने की सोच दी साथ ही तीन वेदों ऋगवेद सामवेद यजुर्वेद का वर्णन अपनी भाषा में भारतवर्ष के पूजनीय चरित्रों को लेकर किया जिसे सनातन धर्म ( ऋगवेद 1/3/3 ) का नाम दिया ॥ वेदों में  कहीं भी कुरीतियों  ( ऋगवेद 8/18/10 )   ( ऋगवेद 6/11/10 ) ( ऋगवेद 41/6/8 ) ( ऋगवेद 14/10/10 ) ( ऋगवेद 9/8/10 )  का कोई समावेश नहीं है , बल्कि तीर्थों में ( ऋगवेद 3/31/10 ) अधार्मिक कार्यों की सख्त मनाही बताई है क्योंकि देवता ( ऋगवेद 4/63/10 ) अपलक बताए गए हैं ॥ भारत में लोगों ने बाद में आर्यों से भाषा सीखी तथा  ज्यादातर तीन वेदों की नकल करके अथर्ववेद की रचना की जिसमें मंत्रदार्शनिक ऋषियों को  मंत्रदर्शक ऋषियों के रूप में प्रस्तुत किया, मंत्र टोटका जोड़े ( अथर्ववेद 19, 23,24/3 ; 30,31/5) तथा अथर्ववेद को वेदों का मुख बताया ( अथर्ववेद 20/7/10 )जबकि तीन ही