सनातन आदि

 आर्यों का प्रवेश भारत में लगभग 5000 वर्ष ईशा  पूर्व हुआ ( ऋगवेद 8/113/9 ) और यह आक्रमण नहीं ज्ञान प्राप्ति के लिए था , वो अपने साथ तीनों लोकों में 33 देवताओं का विचार लाए( ऋगवेद 8/29 ) और उनको अग्नि द्वारा आहुतियों से भोजन देने ( ऋगवेद 8/7/4 ) तथा मनुष्यों की सहायता करने की सोच दी साथ ही तीन वेदों ऋगवेद सामवेद यजुर्वेद का वर्णन अपनी भाषा में भारतवर्ष के पूजनीय चरित्रों को लेकर किया जिसे सनातन धर्म ( ऋगवेद 1/3/3 ) का नाम दिया ॥

वेदों में  कहीं भी कुरीतियों  ( ऋगवेद 8/18/10 )   ( ऋगवेद 6/11/10 ) ( ऋगवेद 41/6/8 ) ( ऋगवेद 14/10/10 ) ( ऋगवेद 9/8/10 )  का कोई समावेश नहीं है , बल्कि तीर्थों में ( ऋगवेद 3/31/10 ) अधार्मिक कार्यों की सख्त मनाही बताई है क्योंकि देवता ( ऋगवेद 4/63/10 ) अपलक बताए गए हैं ॥

भारत में लोगों ने बाद में आर्यों से भाषा सीखी तथा  ज्यादातर तीन वेदों की नकल करके अथर्ववेद की रचना की जिसमें मंत्रदार्शनिक ऋषियों को  मंत्रदर्शक ऋषियों के रूप में प्रस्तुत किया, मंत्र टोटका जोड़े ( अथर्ववेद 19, 23,24/3 ; 30,31/5) तथा अथर्ववेद को वेदों का मुख बताया ( अथर्ववेद 20/7/10 )जबकि तीन ही वेद बताए गए हैं ( यजुर्वेद 1/36, अथर्ववेद 14/6/10, 5/9/11, 23/10/11 ) फिर मनुस्मृति का गठन किया हालांकि ऋषि बाल्मीकि , ऋषि व्यास ने विष्णुरूप अपने इष्टों रामावतार एवं कृष्णावतार के चरित्रों का वर्णन किया ( ऋगवेद 14/93/10 , यजुर्वेद 19/31, अथर्ववेद 7,8/137/20 )और इसी विचारधारा से रामायण तथा महाभारत ( जिसमें हिन्दू धर्मग्रंथ भगवद्गीता सम्मिलित है) आदि का लेखन किया  , भगवान रुद्र को शिवलिंग रूप में पूजित किया तथा धर्मरूप नन्दी ( ऋगवेद 3/58/4 ) सम्मुख रखा एवं ज्ञान ( ऋगवेद 2/9/6 )  लोगों को दिया ॥ मूलरूप से वेदों को ग्राह्य बनाने के लिए भक्तिभाव एवं पूजाभाव से अलग व्यक्तिभाव व स्वार्थभाव को लेकर संस्कृत भाषा में पुराणों का गठन( अथर्ववेद 17/8/10 , अथर्ववेद 26/7/10) किया गया तथा संस्कृत भाषा में ही उपनिषद अरण्यक आदि गठित किए गए ॥

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